रावल, राजस्थान के सिरोही, पाली, जालोर जिलों का निवासी ब्राह्मण समुदाय है। 'रावल' एक पदवी दी थी जो ब्राह्मणों में से श्रेष्ठ विद्याधारक पुरोहित या राजगुरु को दी जाती थी। यह पदवी राजस्थान के सिरोही जिले में बसने वाले ब्राह्मणों को दी जाती थी। बाद में वे अपने उपनाम जाति
'रावल' लगाने लगे तथा कालान्तर में 'रावल ब्राह्मण' कहलाये। सिरोही ,पाली तथा जालोर में बसे रावल ब्राहमण समाज एक स्वतंत्र समूह है जाती नहीं है।
भारत की ब्राहमण जातियो में रावल ब्राहमण नामक समूह का ना तो जाती भास्कर में उल्लेख मिलता है तथा ना ही ब्राहमणों उत्तपति मार्तण्ड में ऐसा कही भी उल्लेख नहीं है, परन्तु गहराइयों से देखने पर यह पता चलता है कि श्री स्थल के पश्चात् सारणेश्वरजी की जब स्थापना हुई तब सिद्धपुर से पधारे ब्राहमणों को गोल नामक गाव जो वर्तमान में सिरोही के निकट है वहा की जागीरी दर गई जो कालांतर में गोरवाल ब्राहमण कहलाये तथा उसी समूह में से एक वर्ग जो गौतम गोत्र का था रावल ब्राहमण समूह का केंद्र बिंदु बना जिसे आम रूप से वडकिया कहा जाता है।उसी प्रकार सिद्धपूरा से पधारे ब्राहमणों के एक वर्ग को जिसे हरिशचन्द्र के पुत्र रोहित के नाम से विख्यात रोहितपुर (रोहिडा ) में बसाया गया जो कालांतर में रोडवाल ब्राहमण कहलाये उनमे से एक समूह का रावल ब्राहमण समुदाय में विलीनीकरण हो गया जिन्हें कृष्णात्रैय के रूप में जाना जाता है। इसी प्रकार पाली क्षेत्र
से पधारे कश्यप गोत्रीय बंधुओ का रावल समुदाय में विलीनीकरण हुआ जो कालांतर में लुरकिया कहलाये शनैः शनैः कपिल टिलुआ एवम अन्य अगिनत ब्राहमण गोत्रो को इस समुदाय में विलीनीकरण हुआ जो कालांतर में रावल ब्राहमण नाम से एक पृथक पहचान बनी।रावल ब्राहमण नामक जाती का उल्लेख कही भी नहीं मिलता है परन्तु रावल शब्द अटक का घोतक है रावल से तात्पर्य है राज्यकुल राजा के गुरु को रावल कहते है। इसी प्रकार सिरोही राजघराने से रावल पदवी के रूप में प्राप्त हुआ था एवम साथ में कही जागीरी के रूप में कइ गाव भी प्राप्त हुए अतः यह बात यहाँ एकदम सटीक बैठती है किरावल शब्द पदवी का घोतक रहने के कारण एक वर्ग ने इन्हें पृथक रूप दे दिया जो कालांतर में रावल ब्राह्मण नाम से पृथक पहचान बन गई। परन्तु इन सब में वडकिया (गौतम) समूह रावल ब्राहमण समूह का प्रथम नागरिक बना यह बात यहाँ झलकती है जो भगवान सारणेश्वरजी के पुरोहितजी के रूप में यहां आए।अवंटक जिसे हम अटक कहते है शब्द से तात्पर्य था कर्म। सभी ब्राहमण थे लेकिन ब्राहमणों में कर्मो का विभाजन था दो वेद जानने वाले को द्विवेदी, तिन वेदों को जानने वाले को त्रिवेदी एसे उच्चारण की अटक के रूप में पहचान थी।
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